आचार्य श्रीराम शर्मा >> भाव बंधनों से मुक्त हों भाव बंधनों से मुक्त होंश्रीराम शर्मा आचार्य
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सभी प्रकार के बन्धनों से मुक्ति की आवश्यकता और उपाय
Bhav Bandhano Se Mukt Ho - Lectures by SriramSharmaAcharya
आवश्यकताओं का कोई मापदण्ड होना चाहिये, अन्यथा विलासिता और शेखीखोरी को भी अपनी विशिष्टता बताते हुए आवश्यकताओं की श्रेणी में गिना और गिनाया जा सकता है। अपनी प्रकृति ही ऐसी बन गयी है, अपना स्वभाव ही ऐसा हो गया है, जिसे मजबूरी बताकर अमीरों जैसी सजधज को भी सही बताया जा सकता है, उसे प्रतिष्ठा का प्रश्न कहा जा सकता है। कहीं अदालत में तो जबाव देना नहीं है, अपने मन को समझाना और दूसरों का मुँह बन्द करना भर है। ऐसी दशा में कोई कुछ भी कर सकता है और शान-शौकत को भी आवश्यकता ठहराया जा सकता है।
उचित आवश्यकता का मापदण्ड यह है कि वह औसत नागरिक स्तर की होनी चाहिये। औसत नागरिक का अर्थ है अपने देशवासियों में से मध्यम वर्ग के लोगों जैसा रहन-सहन। अपने देश में भी धन-कुबेर रहते हैं और दरिद्रनारायण भी। इन दोनों वर्गों को अतिवादी या अपवाद कहा जा सकता है। औसत अर्थ होता है-मध्यम वर्ग। अपने देशवासियों का उल्लेख करने का अर्थ यह है कि जिस समुदाय में रहा जा रहा है, उसकी स्थिति का आकलन। अमेरिका, जापान, फ्रांस, जर्मनी, कुबैत जैसे देशों की बात छोड़ी जा सकती है क्योंकि वहाँ का सामान्य व्यक्ति भी यहाँ के असामान्यों से बढ़कर होता है। इसी प्रकार वनवासी कबीलों की बात भी छोड़ी जा सकती है, वे तो कपड़े के अभाव में पत्ती के परिधान बनाकर ही शरीर ढक सकते है। औसत आदमी न दरिद्र होता है, न सम्पन्न। यही है औसत नागरिक की परिभाषा। इसी स्थिति में अपनी, अपने परिवार की स्वस्थता, शिक्षा, चिकित्सा, आतिथ्य जैसी जरूरतों की पूर्ति हो सकती है। इससे कम की अभावग्रस्त स्थिति में स्थिरता और प्रगति रुकती हैं। इससे अधिक ऊँचा स्तर होने पर अनेक प्रकार की उलझनें उलझती और समस्यायें खड़ी होती हैं।
भव-बन्धनों से मुक्त हों
अनुक्रम
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